Friday, February 18, 2011

गरीब के आंसू

आज  दिन के उजाले में भी अँधेरा  है 
चारो और फैला भ्रस्ताचार   का मेला है
हम चुप है सब देखकर  भी 
क्योकि बोलना इस समाज का रोड़ा है
आज प्याज की कीमत खून से भी ज्यादा है 
गरीब रोज खाता गम का निवाला है 
पीने के लिया पानी नहीं पसीना है 
हर मौसम पतझड़ हर इंसान कमीना है 
अब क्या होली क्या दिवाली 
जेब  में पैसा नहीं गम का खजाना है
आज सपने दखने पर भी जुरमाना है 
यहाँ दो वक़्त की रोटी  नहीं 
उधर शीला और मुन्नी पर फ़िदा जमाना है 
आज आखो से आंसू नहीं खून टपक रहा है 
हर पेट में खाना नहीं इंसान तड़प रहा है 
नेता मूर्तियों को सवारने में लाखो   लगा देते है 
वही गरीब एक वक़्त की रोटी के लिए जान गवा देते है 
ये कैसा समाज ,कैसा देश है  
जहा झोपडी  में रहने वाला इंसान कीड़ा 
और महलो में रहने वाला भगवान है
आज हर गरीब  पूछ रहा एक सवाल है 
क्या कोई हमारे आंसू पोछेगा 
हमारे बच्चो को बर्तन मांजने से रोकेगा  
क्या कभी कोई  आएगा
जो हमारे दिन के उजाले में फैले अँधेरा को हटाएगा  




3 comments:

  1. फिर से लिखो इसको ये बेहतर हो सकती है अभी तो ये कविता कहानी का मिश्रण लग रही है

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