आज दिन के उजाले में भी अँधेरा है
चारो और फैला भ्रस्ताचार का मेला है
हम चुप है सब देखकर भी
क्योकि बोलना इस समाज का रोड़ा है
आज प्याज की कीमत खून से भी ज्यादा है
गरीब रोज खाता गम का निवाला है
पीने के लिया पानी नहीं पसीना है
हर मौसम पतझड़ हर इंसान कमीना है
अब क्या होली क्या दिवाली
जेब में पैसा नहीं गम का खजाना है
आज सपने दखने पर भी जुरमाना है
यहाँ दो वक़्त की रोटी नहीं
उधर शीला और मुन्नी पर फ़िदा जमाना है
आज आखो से आंसू नहीं खून टपक रहा है
हर पेट में खाना नहीं इंसान तड़प रहा है
नेता मूर्तियों को सवारने में लाखो लगा देते है
वही गरीब एक वक़्त की रोटी के लिए जान गवा देते है
ये कैसा समाज ,कैसा देश है
जहा झोपडी में रहने वाला इंसान कीड़ा
और महलो में रहने वाला भगवान है
आज हर गरीब पूछ रहा एक सवाल है
क्या कोई हमारे आंसू पोछेगा
हमारे बच्चो को बर्तन मांजने से रोकेगा
क्या कभी कोई आएगा
जो हमारे दिन के उजाले में फैले अँधेरा को हटाएगा
फिर से लिखो इसको ये बेहतर हो सकती है अभी तो ये कविता कहानी का मिश्रण लग रही है
ReplyDeleteji sir koshis karta hu
ReplyDeletegood
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