Sunday, March 27, 2011

लखनऊ नहीं जन्नत कहो

करीब 21 साल हो गए लखनऊ में रहते हुए अक्सर ही लखनऊ घूमा करता हू तकरीबन हर जगह घूम चूका हू लेकिन फिरभी कुछ अधुरा सा लगता है मै लखनऊ को जान तो गया पर अभी भी  कुछ कमी है क्योकि मै उसे महसूस नहीं कर पा रहा लखनऊ की अदा और नजाकत तो पता है लेकिन क्यों इसका कोई इल्म नहीं वैसे पुराने लखनऊ की खुसबू तो पूरी दुनिया में मशहूर है मै भी वही का बाशिंदा हू लेकिन आज लखनऊ को अपनी नजरो और बाइक के फराटो के बीच नहीं देख रहा बल्कि फ़रिश्ते की तरह हमारी जिंदगी में आये महान सख्स (नाम नहीं लूँगा)के आशीर्वाद से एक हरिटेज वाक का मौका मिला जिसके माध्यम से हमें लखनऊ  और उसकी तहज़ीब को एक अलग नजरिये से देखने का मौका मिल रहा है अभी तक लखनऊ में रहता हू इस बात की खुसी है पर अब गर्व करने का दिल करता है बस इन्ही उमीदो को अपने जहन में बसाकर लखनऊ को जीने के लिए बताये गए गंतव्य स्थान टीले वाली मस्जिद पर समय से पहुँच गया हू उत्सुकता और बेकरारी चरम पर है तभी गाइड साहब की आवाज आती है जो इस हरिटेज वाक के संचालक है हम सब व्याकुलता से उनकी ओर बढ़ते है वहा हमारे गाइड नवेद,आतिफ ओर इमरान साहब पहले से ही मौजूब है उनके आलावा भी एक सख्स वहा मौजूब है  जो टीले वाली मस्जिद की देखभाल करते है जिनकी उम्र  तकरीबन 90 साल है असलम साहब जिन्होंने अपनी बूढी आँखों से लखनऊ को जवान होते देखा है उनकी पिछली नस्लों ने भी अपनी पूरी जिंदगी हजरत इमाम  के लिए दे दी इसी बीच हमारे गाइड नावेद जी इस हरिटेज वाक और लखनऊ की खूबसूरती के बारे में बताना शुरू करते है तो मै आपको उनकी बताई गई बातो ओर लखनऊ की खूबसूरती को अपने अल्फाजो के माध्यम से आपके दिल तक पहुचाने की  कोशिस करता हू--------
तो जैसा की आप तस्वीरो में देख रहे है टीले वाली मस्जिद जो तकरीबन 200 साल पुरानी है ये मस्जिद सुन्नी भाइयो के लिए बहुत ही खास है यहाँ पर ईद  और अलविदा की बड़ी नमाज भी होती है इसकी नक्काशी ने हम सभी का दिल जीत लिया वैसे है तो ये एक मुस्लिम मस्जिद लेकिन इससे गंगा-जमुनी तहजीब की महक साफ़ झलकती है इस मस्जिद को मुग़ल और राजपूती नक्काशो ने मिलकर बनाया जिसमे शेषनाग  के फनो की तरह दरवाजो और झरोखों पर नक्काशी है वैसे लखनऊ  की बात करे तो ये दिबियापुर कोठी से लेकर मूसाबग पैलेस तक बसा है यहाँ मूसाबग में तो एक अंग्रेज  की ऐसी कब्र है जिसमे  आप सिगरेट जलाकर  रखे तो  वो खुद बा खुद स्मोके करने लगती है ये कब्र कर्नल साहब की है जो पूरे मूसाबग में मशहूर है लखनऊ की बात हो रही है
 तो गोमती नदी की बात होना लाजमी है पहले इस नदी को भानुमती के नाम से पुकारा जाता था फिर हमारे मुस्लिम भाइयो ने इसे घूमती का नाम दिया क्योकि ये पूरे सहर  में घूमती है जिसके किनारे पर लखनऊ बसा है बाद में इसका नाम गोमती हो गया गोमती के ऊपर बना लाल पुल भी अंग्रजो के ज़माने का है जिसमे छत्रीनुमा  गुम्बद बने है इसीलिए इसे छत्री वाला पुल भी कहते है वैसे इस पुल पर कई फिल्मो की भी शूटिंग हुई है 
पराने समय में टीले वाली मस्जिद और इमामबाड़े  के पीछे का रास्ता सिर्फ नवाबो के लिए था जो शाही रास्ता कहलाता था और आज जहा मेडिकल कॉलेज है वहा का रास्ता आम लोगो के लिए था वैसे जहा मेडिकल कॉलेज है पहले वहा एक मच्छी भवन हुआ करता था और वहा पर एक जूता लटका रहता था जो भी उसके नीचे से होकर नहीं गुजरता था उसका सेर कलम कर दिया जाता था फिर 1857 में किंग जोर्ज लखनऊ आये और अंग्रजो ने इसे हासिल कर लिया फिर इसका नाम किंग जोर्ज हुआ जो आगे चलकर किंग जोर्ज मेडिकल विश्वविध्याले  बना जिसका नाम मायावती सरकार में छत्रपति साहूजी महराज हो गया और अब आलम ये है की डॉक्टर कोर्ट में चले गए है इसके नाम के विवाद को सुलझाने के लिए अंग्रजो के समय इसी के सामने एक मशहूर त्रिपोली मार्केट भी हुआ करती थी 
अब क्या था लखनऊ  के बारे में इतना कुछ जानने के बाद जोश सातवे आसमान पर पहुच गया है अब हमें अपने गाइड साहब के साथ टीले वाली मस्जिद छोड़ दूसरे स्थान पर जाना है लेकिन उससे पहले लखनऊ के नाम एक शेर अर्ज करना चाहुंगा--------
खाके लखनऊ ऐ महल गुम्बदो मीनार नहीं
ये सहर  सिर्फ सहर नहीं कूच और बाजार नहीं 
इसके आँचल में मोहोब्बत के फूल खिलते है
इसकी गलियों में फरिश्तो के पत्ते मिलते है 
 अब हम सब अपने गाइड साहब के साथ इमामबाड़े  की ओर चल दिए  जिसका दीदार तो कई बार किया है लेकिन आज दोस्तों और हमारे गाइड नावेद और आतिफ जी के साथ इसको  जानने और इसकी अहमियत को समझने का मौका मिला ये इमामबाड़ा गारे और दाल का बना है जिसमे एक भी ईंट नहीं लगी ये नवाबो का महल हुआ करता था  इसी को भूल भुलैया भी कहते है यहाँ शिया समुदाय अपनी ईद और अलविदा की नमाज अदा करता है और मोहोर्रम में मजलिसे और मातम भी इसी इमामबाड़े में होते  है इस इमामबाड़े के बारे में मशहूर है की इसके नीचे इतना खजाना दफन है की भारत फिर से सोने की चिड़िया बन जाये लेकिन अंग्रेज हो या और कोई आज तक उस खजाने को नहीं ढूढ़ पाया इस इमामबाड़े में कई सुरंगे भी मौजूद है जिसका इस्तेमाल नवाब करते थे 
अब इमामबाड़े से होते हुए हम लखनऊ के चौक बाजार की और बढ़ने लगे तभी हमारे एक गाइड हाश्मी साहब ने हमें एक शेर सुनाया ------------
मर्द वो है जो मरदाना वार लड़ कर मरे
मरे जरूर मगर मोह से अकड़कर मरे 
न इक्के ताँगे से न हम्बद से लड़कर मरे
मरे पर तुम्हारी याद में एड़ी रगड़-रगद के मरे  
जिससे पता चल गया की लोग शायर  कैसे बन जाते है और मैखाने क्यों खली हो जाते है तो हम चौक बाजार पहुचे जहा बीच में हमें मशहूर फूल मंडी भी मिली जो अंग्रजो के ज़माने की है जहा रोज लगभग  10 लाख के फूल बिक जाते है अब हम चौक मार्केट पहुच गए जहा हम मशहूर राजा की ठंडाई की दुकान पर रुके सभी लोग बैठ गए और ठंडाई का आर्डर दे दिया गया कुछ ने भाँग मिलकर पिया तो कुछ ने सादी इसी बीच कुछ दोस्तों ने चौक के  पान का भी मजा ले लिया अभी तक लखनऊ के बारे में जितना जाना वो शुरुवात थी क्योकि ये हमारा इंटरवल  था असली पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त 
अब हम आगे बढे और हमने आनंदी देवी के दर्शन किये जहा एक महिला पुजारन है जो इस मंदिर की देखभाल करती है अब हम गोल दरवाजे से होते हुए चौक के उन सकरे और तंग रास्तो पर चल दिए जो अंग्रजो और नवाबो के कई राज अपने में दफन किये हुए है जो आज से पहले काफी बार वही से गुजरा पर मालूम नहीं कर पाया बस इसी उत्सुकता को दिल में लिए आगे चल दिया जहा हमारे गाइड साहब ने हमें नवाबो के ज़माने  के झरोखे दिखाए जहा नीचे दुकाने हुआ करती थी और ऊपर मुजरा और नाच होता था लेकिन इसका एक अच्छा पहलु भी था वो ये की ये नजाकत,तहजीब और  आदाब का प्रतीक बन गया था उमरावजान भी यही की थी जिनपर दो फिल्मे भी बन चुकी है 
इसके बाद हम करीब 200 साल पुराने कलीराम  जी के मंदिर गए जहा की मान्यता ये है कि यहाँ पर कुए से भगवन राम कि काले रंग  कि मूर्ती निकली थी जिसे हर रामनवमी के दिन लोगो के लिए रखा जाता है और इस मंदिर में एक औए खास बात है कि यहाँ भगवान् राम और लक्ष्मण जी के बीच में सीता जी विराजमान है और हम इस भव्य मंदिर के दर्शन करके फ़्रांसिसी मार्केट कि तरफ बढ़ दिए जो आज छिपिखाना  है जहा पहले फ़्रांसिसी लोग घोडा बेंचा करते थे पर आज वहा साड़ियो और कुर्तो में छपाई और रंगाई का काम होता है  जहा एक कुआ भी है जो फ़तेह अली खान कि याद में बनवाया गया था जिसपर अब कुछ दुकानदारो ने कब्ज़ा कर लिया है और उसपर दुकान खोल दी है बस थोडा गुस्सा आया पर हिन्दुस्तानी है हम इतना तो हक़ बनता ही है ये सोचकर हम आगे चल दिए 
हम अब मशहूर यूनानी अस्पताल पहुच गए जहा आज भी प्राकृतिक सामानों से ही दवाए तैयार की जाती है अब हम सब कुछ थकान महसूस करने लगे है तभी गाइड साहब हमें एक पुराने  घर ले गए---
  दरअसल ये घर ख्वाजा  मेनुदीन चिस्ती के परिवार के लोगो का है जहा हमें एक महिला बेगम नुसरत फातिमा मिली जिन्होंने हमें अपने परिवार और आजादी के वक़्त की कुर्बानियों की दास्तान सुनाई बस सारी थकावट वही दूर हो गई उन्होंने बताया की गाँधी जी दो बार लखनऊ आये और उन्ही के घर पर रुके साथ ही आजादी के वक़्त जितनी भी गुप्त मीटिंग होती थी वो उन्ही के घर के नीचे बने तैखाने में होती थी जिसमे पंडित जवाहर लाल नेहरु,लाला लाजपत राये के साथ और भी लोग शामिल होते थे वो आजादी के वक़्त की दासता उन्होंने खुद देखी है  और हमें  बताई जो एक अलग एहसास था बस वही थोडा पानी पिया और मंजिल की और आगे बढ़ दिए 
हम अब फूल वाली गली से होते हुए आगे बढ़ने लगे जहा हमने पुराने ज़माने के बने घर देखे जिसमे हर दरवाजे के ऊपर मछली बनी है जो स्वागत का प्रतीक है वहा पुराने ज़माने के दरवाजे और नक्काशी ने हमारा दिल जीत लिया बस अब हमारी इस हरिटेज वाक के  आखरी पड़ाव आ गए  हम मशहूर टुंडे कबाबी की दुकान पहुच गए कुछ खाया तो नहीं पर पूरे लखनऊ में मशहूर टुंडे की महक को महसूस जरूर किया अब इस आखरी पड़ाव से जाने का वक़्त आ गया तो सबसे हाँथ मिलाया और सब अपने अपने रास्तो पर आगे बढ़ गए लेकिन एक बात दावे के साथ कह सकता हू की आज का दिन  मेरी जिंदगी के उन चुनिन्दा यादगार दिनों में से एक है जिन्हें मै कभी नहीं भूल सकता तो उम्मीद है आपने भी मेरे साथ साथ लखनऊ को जिया होगा 



3 comments:

  1. bohot khoob, अच्छे है आपके विचार, ओरो के ब्लॉग को follow करके या कमेन्ट देकर उनका होसला बढाए ....

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  2. aapne to saara lucknow guma diya ... waise to main kayi baar gaya hoon , lekin aapki lekhan ki drushti se dekhna accha laga

    badhayi .

    मेरी नयी कविता " परायो के घर " पर आप का स्वागत है .
    http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/04/blog-post_24.html

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